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University lives only for Repo

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‘प्रतिष्ठा’ एक ऐसा शब्द जिसका आज की दुनिया में बहुत बड़ा मोल है और मोल हो भी क्यों न क्योंकि इसी शब्द से बडे -बडे घरानों, विद्यालयों और संस्थानों के लोग अपना मान समाज में बनाये जो रखते है पर कितनी अजीब बात है न ! जैसे- जैसे वक़्त बदल रहा है लोगों ने इस शब्द की परिभाषा भी अपने अनुसार बदलना शुरू कर दी है खासतौर से आज के उन महाविश्वविद्यालो ने जहा बच्चे अपने भविष्य को सुनहरा बनाने के सपने देखते है
सच कहूँ तो आज मुझे ये विश्वविदयालय भी किसी चुनावी युद्ध से कम नहीं लगते जिस तरह चुनाव से पहले सभी मंत्री नेता और विधायक अपने अपने वादों के राग आलापने लगते है विकास के दावे करने लगते है ठीक वैसे ही आप गौर दें तो एडमिशन सत्र शुरू होते ही संस्थानों और महाविश्वविद्यालो की सुविधाओं के पर्चे ऐसे बाटते है जैसे मानो बच्चों को उनके बेहतर भविष्य की तैयारी नहीं बल्कि घर बसाने की सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हो
चलिए फिर से चलते है, उस शब्द पर जिसके चलते आज ये सब कुछ एक बिज़नेस बन के रह गया है यानी की “अपनी -अपनी प्रतिष्ठा. मैं जर्नलिज्म कर रही हूँ एक संस्थान से और आज जब मुझे इस विषय पर लिखने का सुनहरा मौका मिला है तो मैं इसे गवाना बिलकुल भी नहीं चाहूंगी क्योंकि मेरा मानना है की हम उन्ही दो विषयों पर बेहतर लिख सकते है जो हमारा पसंदीदा हो या फिर जिसे हमने करीब से महसूस किया हो और मैंने इन ‘प्रतिष्ठाओं के खेल’ को महसूस किया है मैंने अक्सर बडे- बडे महाविश्वविद्यालों में देखा है की किस तरह से वे अपना नाम बढ़ाने व प्रचार करने के लिए ब्रॉउचर का प्रयोग करते है अच्छी बात है अब भाई जब आपने महाविद्यालय को उत्पादक बना ही दिया है तो उसका प्रचार करने में भला बुराई कैसी ? पर आश्चर्य लगता है …..रीमा और करीमा अच्छी दोस्त है कॉलेज में फोटोशूट होना है रीमा बहुत गोरी है और उसकी फोटो भी अच्छी आती है कॉलेज मैनेजमेंट ने रीमा और बाकी के आकषर्क बच्चों को फोटोशूट के लिए तो बुलाया पर करीमा जो की सावली है जो गरीब है जिसके अंदर हुनर तो है पर अफ़सोस सूरत नहीं है उसे नाही बुलाया जाता. ..क्योंकि शायद अगर करीमा की फोटो ब्रॉउचर पर लग गयी तो कॉलेज में कोई एडमिशन नहीं लेगा सब सोचेगे की अरे! ऐसे बच्चे पढ़ते है यह ? क्या ये तरीका है प्रतिष्ठा को बनाये रखने का ? कहाँ का इन्साफ है ये ? जब संविधान में हम सबको समानता का अधिकार प्राप्त है तो कोई भी ब्रॉउचर क्या हमारे देश के संविधान से बड़ा हो सकता है ?
बात सिर्फ यही तक की होती to शायद एक बार सहन किया जा सकता था पर प्रतिष्ठा को हथियार बनाकर आज लोगों की ज़िन्दगी से खेल रहे महाविद्यालयों को शायद अब ये समझाना होगा की प्रतिष्ठा किसी की ज़िन्दगी से बड़ी नहीं हो सकती अजीब लगता है मुझे जब मुझे संस्थान में अधिकारों के लिए लड़ने और हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने की शिक्षा दी जाती है और वही दूसरी तरफ उसी संस्थान में कोई उस छोटू को नहीं देखता अब आप सोचेगे की ये छोटू कौन ? छोटू वो 12 साल का बच्चा है जिसको न तो अपना नाम लिखने तो दूर पेंसिल तक पकड़ना नहीं आता और इसकी वजह है बचपन से ही उसके हाथो में किताबों की जगह पोछे के कपडे और झाड़ू पकड़ा दी जाती है कंधो पर बस्तो के बोझ की जगह जिम्मेदारियो का पहाड़ लाद दिया जाता है और संस्थान की सफाई करवाई जाती हैं सुबह से शाम खाना बनवाया जाता है हद तो पार वह होती है जहां उसके पैरों पर लगे जख्मो को भी सिर्फ प्रतिष्ठा के नाम पर छिपा दिया जाता है क्योंकि अगर उसके जख्म दिखे तो कोई तोह होगा ऐसा जो संसथान के खिलाफ आवाज़ उठा देगा दोस्तों वो कोई और नहीं हम और आप जैसे लोग ही है बस जरूरत है तो आवाज़ उठाने की डर हमें आवाज़ उठाने नहीं देता और प्रतिष्ठा कदमों को रोक देती है पर डर के आगे तो जीत है न याद रहे आज नहीं तो कभी नहीं इस गम्भीर मुद्दे को गंभीरता से लीजिये शायद किसी की ज़िन्दगी का भला हो जाए

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